ब्यूरो रिपोर्ट दर्शन गुप्ता
🔸 लखनऊ की रूहानी फिज़ा में घुला ग़म और मोहब्बत का रंग
7 मोहर्रम 1447 हिजरी / 3 जुलाई 2025 को लखनऊ की गलियों में ग़म, श्रद्धा और भाईचारे की एक मिसाल पेश की गई जब हज़रत क़ासिम (अ.स.) की याद में "जुलूस-ए-मेहंदी" पूरे अकीदे और सलीके से निकाला गया।
बड़ा इमामबाड़ा से शुरू होकर यह परंपरागत जुलूस छोटा इमामबाड़ा तक पहुंचा, जिसमें हजारों अज़ादारों ने हिस्सा लिया। इस मौके पर मेहंदी की ज़री, ताजिए, और फूलों से सजा घोड़ा जुलूस की शान बने रहे। जुलूस के दौरान पूरा माहौल "या क़ासिम, या हुसैन" की सदाओं से गूंजता रहा।
🔸 हज़रत क़ासिम (अ.स.) की शहादत की याद में
यह जुलूस 13 वर्षीय हज़रत क़ासिम (अ.स.) की शहादत की याद में निकाला जाता है, जिनकी शादी से पहले ही कर्बला में शहादत हुई थी। मेहंदी का यह जुलूस उनके निकाह की अधूरी रस्म का प्रतीक माना जाता है, जिसे आज भी अज़ादारी के रूप में निभाया जाता है।
🔸 कौमी एकता की झलक
जुलूस में हिंदू संत स्वामी सारंग की मौजूदगी ने हिंदू-मुस्लिम एकता का खूबसूरत संदेश दिया। राह में जगह-जगह सबीलें, लंगर, और चाय-पानी के स्टॉल लगाए गए, जहां सभी धर्मों के लोगों ने सेवा में भागीदारी की।
🔸 सुरक्षा व्यवस्था रही चाकचौबंद
प्रशासन की ओर से ड्रोन कैमरों से निगरानी, सीसीटीवी, और दंगा नियंत्रण बल की तैनाती की गई थी। किसी भी तरह की अफवाह या नई परंपरा की अनुमति नहीं दी गई, जिससे जुलूस शांतिपूर्वक संपन्न हुआ।
🔸 लखनऊ की तहज़ीब का आइना
"जुलूस-ए-मेहंदी" न सिर्फ कर्बला के ग़म की याद है, बल्कि यह लखनऊ की तहज़ीब, धार्मिक सहिष्णुता, और इंसानी मोहब्बत का ऐसा प्रतीक बन गया है जो पीढ़ियों तक मिसाल बना रहेगा।
लखनऊ ने एक बार फिर यह साबित कर दिया – यह शहर ग़म भी अदा करता है और मोहब्बत भी बांटता है।
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