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जब बलात्कारी के हक में फैसला, तो न्याय किसके लिए?

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक हालिया फैसले ने कानूनी बहस को नया मोड़ दे दिया है। अदालत ने कहा कि "स्तनों को पकड़ना और पायजामे की डोरी तोड़ना" बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में नहीं आता। अब सवाल यह है कि आखिर प्रयास किसे कहते हैं? क्या अपराधी को बाकायदा अपराध पूरा करने का लाइसेंस मिलना चाहिए ताकि कानून उसकी नीयत पर यकीन कर सके?

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने भी एक नया दृष्टिकोण अपनाया। वहां, अदालत ने कहा कि वैवाहिक बलात्कार, जो भारतीय दंड संहिता की धारा 375 में "सहमति की बाध्यता" के तहत आता है, अपराध नहीं माना जाएगा। यानी शादीशुदा महिलाओं के लिए बलात्कार एक "वैवाहिक कर्तव्य" बन गया है! अगर अदालत का यही रवैया रहा, तो जल्द ही कानून में यह भी जुड़ सकता है कि "पति की मर्जी ही पत्नी की सहमति है!"

न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी इसलिए नहीं बंधी थी कि वह अपराध को नजरअंदाज करे, बल्कि इसलिए कि वह निष्पक्ष रहे। लेकिन अब ऐसा लगता है कि पट्टी ढीली पड़ गई है, और न्याय की देवी भी अपराधियों की मंशा पढ़ने लगी है!

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